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Wednesday 14 November 2012

छठ पूजा

छठ पूजा हिन्दुओ के पर्व में सबसे बड़ा पर्व मन जाता है !
ये पर्व मुख्यतः बिहार का पर्व है पर आज ये पुरे भारत में फ़ैल चूका है क्युकी ये पर्व हिन्दुओ का महान पर्व मन जाता है !
छठ पूजा भगवान सूर्य के लिए की जाती है !
इस पर्व को महिलाओ के साथ साथ पुरुष भी करते है
!

इस पर्व में हर चीज की सफाई का खास ध्यान रखा जाता है
छठ पर्व दीपावली के 6 दिन बाद शुरु हो जाता है
छठ पर्व कददु भात से शुरु होता है ! फिर उसके दुसरे दिन खरना होता है इस दिन घर के सभी सदस्य पडोसी मित्र एक साथ बैठकर प्रसाद ग्रहण करते है ! फिर उसके दुसरे दिन शाम में छठ का डाला लेकर गंगा घाट जाते है और डुबते सूर्य को अर्ग अर्पण करते है ! फिर उसके अगले दिन सुबह में घाट जाते है और उगते हुए सूर्य को अर्ग अर्पण करते है ! और उसी दिन छठ पर्व भी समाप्त हो जाता है !

Wednesday 1 August 2012

रक्षा बंधन डोर एक प्रेम की

कल रक्षा बंधन हैं सोचता हूँ बहनों को क्या दू
रुपया दू ,उपहार हूँ या फिर प्यार का सौगात दू
बहने तो सिर्फ हमारा प्यार चाहती हैं
बहने तो सिर्फ हमारी सलामी चाहती हैं
मैं सोचता हूँ बदले में बहनों को क्या दू
क्या उन्हें उनकी रक्षा का वादा दू
क्या उन्हें ये भरोषा दू
कभी भी उनके प्यार को कम न होने देंगे
ऐसा ही कोई विश्वास दू सोचता हूँ , बहनों को क्या दू
(मेरे तरफ से भाई-बहन के प्रेम का ये त्यौहार आप सबको मुबारक हो )
कीजिये एक वादा मुझसे करेंगे रक्षा बहनों का ,देंगे प्यार-दुलार बहनों को कदमो में रख देंगे सारे संसार की खुशिया,ऐसा ही एक वादा कीजिये बहनों से )
कल रक्षा बंधन हैं सोचता हूँ बहनों को क्या दू
रुपया दू ,उपहार हूँ या फिर प्यार का सौगात दू
बहने तो सिर्फ हमारा प्यार चाहती हैं
बहने तो सिर्फ हमारी सलामी चाहती हैं
मैं सोचता हूँ बदले में बहनों को क्या दू
क्या उन्हें उनकी रक्षा का वादा दू
क्या उन्हें ये भरोषा दू
कभी भी उनके प्यार को कम न होने देंगे
ऐसा ही कोई विश्वास दू सोचता हूँ , बहनों को क्या दू
(मेरे तरफ से भाई-बहन के प्रेम का ये त्यौहार आप सबको मुबारक हो )
कीजिये एक वादा मुझसे करेंगे रक्षा बहनों का ,देंगे प्यार-दुलार बहनों को कदमो में रख देंगे सारे संसार की खुशिया,ऐसा ही एक वादा कीजिये बहनों से )

Monday 30 July 2012

शिक्षा का व्यापार

यूं तो हमारा भारत देश विकाशील देश है और विकसित देश बन्ने की ओर अगर्सर है !
पर आज भी हमारा देश शिक्षा के मामलो में पिछड़ा हुआ है !
सिर्फ कहने को हमारा देश विकाशील है!
ओर आज भी कई गाँव में ही नही वरन सेहरों में भी इसका स्तर गिरा हुआ है
आज भी ऐसे कई जगह है जहा पे खुले मैदान में दीवारों पे बोर्ड टांग कर पदाया जाता है !
सवाल ये है की सरकार शिक्षा की इन बुनुयादी चीजो की कमी दूर करने के लिए कड़ोरो रुपये देते है!
पर ये पैसा जाता कहा है !
एक समय था जब शिक्षा दान किया जाता था ओर एक आज का समय है जहा शिक्षा का व्यापार होता
है !
जब पूरी दुनिया में आर्थिक संकट गहराया था तो सिर्फ भारत देश ही एक ऐसा देश था जहा पे इसका कोई प्रभाव नही पड़ा !
फिर भी इसी भारत देश में शिक्षा का आर्थिक स्थिति इतनी ख़राब क्यों!
ये सवाल सिर्फ मेरा नही आपका भी है!
जरा सोचिए !

Friday 25 May 2012

शिक्षा का बढ़ता विस्तार और बेरोजगारी

शिक्षा का बढ़ता विस्तार और बेरोजगारी

बहुत पहले हमारे देश में शिक्षा को प्राथमिकता नही दी जाती थी !
पर आज हमारा देश शिक्षा के छेत्र में कई बुलंदिया छु रही है
पुरे दुनिया में में भारतीय शिक्षा का डंका बज रहा है !
पर जिस तरह से शिक्षा का विस्तार हुआ उस तरह कार्य के  छेत्र में विस्तार नही हुआ !
उल्टा जैसे जैसे शिक्षा का विकास होते गया वैसे वैसे बेरोजगारी में विस्तार होते चले गई !
आज हमारे देश में कई पढ़े लिखे नौजवान नौकरी तलाश में दर दर की ठोकरे  फिरते है !
डिग्री की कोई कमी नही है
एक एक से डिग्रिया है पर नौकरी नही है
अछे खासे पढ़े लिखे नौजवान सिर्फ अपना पेट पालने केलिए मजदूरी कर रहे है !
इन सब चीजो को देखने के बाद इस सोच में पर जाता हु की क्या फायदा हुआ फिर इस तरह से शिक्षा पाकर !
हम अपने ही देश में अंजानो की तरह इधर उधर भटक रहे है !
काफी कुछ कहना है मुझे इस बारे में
तब तक आप से अनुरोध  है इस विषय  पे जरुर सोचिए और अपनी राय मुझे दीजिये !
मै वापस आकर आपसे बात करता हु
तब तक के लिए नमसकार !!

Monday 21 May 2012

आज का समाज

आज का समाज
आज हमारे समाज में दहेज़ लेना आम बात हो गई है और हम इसका  पेर्तक्ष और अपेर्तक्ष रूप से साथ दे रहे है ! इसके लिए  तो कई कानून भी है है पर वो कानून सिर्फ कानून के किताबो तक ही है ! आज भी इस दहेज़ के नाम पे कई मासूम लड़की  और महिलाये इसके शिकार हो रहे है ! इस पे हम आगे की विशेष  चर्चा बाद में करेगे तब तक आप अपनी राय मुझे जरुर दे !!

Tuesday 15 May 2012

पुलिस सुधारः मतलब और मकसद

पुलिस सुधारों का मुद्दा पिछले नौ महीनों से खासी चर्चा में है। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले सितंबर में पुलिस सुधारों का एक खाका बताते हुए केंद्र और राज्य सरकारों से इस पर अमल करने को कहा। सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए जो समयसीमा बताई न सिर्फ वह गुजर चुकी है, बल्कि उसके बाद दी गई अगली समयसीमा भी बीत गई है। केंद्र सरकार और ज्यादातर राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों को आंशिक तौर पर ही माना है और सुझाए गए बाकी उपायों पर अमल को नामुमकिन बता दिया है। सिर्फ चार छोटे राज्यों- अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, मेघालय और हिमाचल प्रदेश ने सभी दिशानिर्देशों को लागू करने पर सहमति जताई है। बाकी राज्यों के एतराज व्यावहारिक और सैद्धांतिक दोनों हैं।
विभिन्न राज्यों ने अलग-अलग तरह की व्यावहारिक दिक्कतों का जिक्र किया है। जबकि कुछ हलकों से यह दलील देते हुए आपत्ति की गई है कि संविधान के तहत कानून-व्यवस्था राज्य सूची का विषय है और यह कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में आता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश देना इस अधिकार क्षेत्र में दखल में है। मसलन, गुजरात सरकार ने जोर दिया है कि सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश संविधान के तहत शक्तियों के बंटवारे का सीधा उल्लंघन हैं। साथ ही ये संविधान के संघीय स्वरूप और उसके बुनियादी ढांचे की अनदेखी भी है। जाहिर है, एक अच्छा उद्देश्य प्रक्रियागत आपत्तियों की भेंट चढ़ता लग रहा है।
पुलिस सुधार लंबे समय से उपेक्षित मुद्दा है, जबकि मानव अधिकारों की लड़ाई से जुड़े लोग इसकी जरूरत काफी गहराई से महसूस करते रहे हैं। यह मांग अब दशकों पुरानी हो चुकी है। १९७७ में जब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी तो पहली बार ये विषय व्यापक चर्चा का हिस्सा बना। मोरारजी देसाई की सरकार ने तब प्रतिष्ठित पुलिस अधिकारी डॉ. धर्मवीर की अध्यक्षता में पुलिस आयोग का गठन किया। धर्मवीर आयोग ने पुलिस सुधारों के बारे में महत्त्वपूर्ण और विस्तृत सिफारिशें कीं। लेकिन आयोग की रिपोर्ट सरकार की अलमारियों में धूल चाटती रही। उसके बाद से कांग्रेस, अपने को तीसरे मोर्चे का हिस्सा कहने वाले दल और भारतीय जनता पार्टी एवं उसकी सहयोगी पार्टियां केंद्र और विभिन्न राज्यों की सत्ता में आती और जाती रहीं हैं, लेकिन किसी सरकार ने लोकतंत्र की इस बेहद बुनियादी जरूरत पर ध्यान नहीं दिया।
अब सवाल है कि पुलिस सुधार लागू कराने की सुप्रीम कोर्ट की मौजूदा पहल देश की जनतांत्रिक शक्तियों में ज्यादा उत्साह क्यों पैदा नहीं कर पा रही है? इसके लिए सरकारों पर सार्वजनिक दबाव इतना क्यों नहीं बन सका कि वो पुलिस को स्वायत्त एजेंसी बनाने और आम लोगों की शिकायत सुनने की संस्थागत व्यवस्था करने जैसे वांछित सुझावों को मानने पर मजबूर हो जातीं? बल्कि लोकतांत्रिक विमर्श से जुड़े हुए कई लोग क्यों सरकारों की कुछ आपत्तियों को आज ज्यादा सही मानते हैं और उनके भीतर ऐसी राय बन रही है कि इस तरह से पुलिस सुधार लागू नहीं हो सकते? इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए हमें पुलिस सुधारों के पूरे परिप्रेक्ष्य पर समग्रता से विचार करना होगा। असल में पुलिस सुधारों की मौजूदा बहस में दो ऐसे पहलू हैं जो मौजूदा पहल को कमजोर करते हैं। इनमें एक पहलू कुछ राज्यों की तरफ से उठाए गए एक वाजिब सवाल से जुड़ा है और दूसरा पहलू इस कोशिश के पीछे की बुनियादी सोच पर सवाल उठाता है।
गौरतलब है कि पुलिस सुधारों के लिए सुप्रीम कोर्ट का आदेश उस दौर में आया जब न सिर्फ विधायिका और सरकारों के दायरे में, बल्कि लोकतांत्रिक रूप से जागरूक समूहों में भी न्यायपालिका के द्वारा शासन के दूसरे अंगों में दखल की शिकायत गहरी होती गई है। काफी समय तक इस न्यायिक सक्रियता के असली स्वरूप, मकसद और परिणामों को लेकर असमंजस बना रहा। ऊहापोह इसको लेकर भी रही कि आखिर इस परिघटना के प्रति कैसा रुख अख्तियार किया जाए। धीरे-धीरे लोकतांत्रिक समूहों में यह धारणा गहरी होती गई कि यह परिघटना कमजोर समूहों के हितों के खिलाफ जा रही है। उधर विधायिका और सरकारों के हलके में काफी समय तक बचाव का रुख रहा। लेकिन जब न्यायिक फैसलों का आरक्षण जैसे मुद्दों पर सामाजिक अस्मिता की नवजाग्रत चेतना के साथ अंतर्विरोध उभरने लगा तो राजनीतिक पार्टियों के स्वर भी तेज होने लगे। इसकी हम कई मिसाल देख सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जब उच्च शिक्षा संस्थानों में पिछड़ी जातियों के लिए २७ फीसदी आरक्षण पर रोक लगाई तो इस फैसले के खिलाफ तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में बंद का आयोजन किया गया। कई राजनीतिक दलों ने खुलकर इस फैसले की आलोचना की और इसे बेअसर करने के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग की। उधर केंद्र सरकार जो कुछ समय पहले तक कार्यपालिका के अधिकारों के सवाल को नहीं उठा रही थी, उसने वन सलाहकार समिति के गठन के मुद्दे पर अडिग रुख अपना लिया। एक जन हित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को इस समिति में कुछ कथित स्वतंत्र विशेषज्ञों को रखने का आदेश दिया। केंद्र ने दलील दी कि इस समिति का गठन सरकार का अधिकार है और वह इस आदेश को नहीं मान सकता। इस रस्साकशी में समिति का गठन कई महीनों तक लटका रहा। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट को पलक झपकानी पड़ी और केंद्र ने उसके आदेश पर अमल नहीं किया। इसी क्रम में हाल में दिल्ली में पर्याप्त बिजली मुहैया कराने का मामला आया। इस मसले पर दिल्ली सरकार ने क्या कदम उठाए हैं, सुप्रीम कोर्ट के यह पूछने पर सरकारी वकील का जवाब रहा- बिजली की सप्लाई संविधान के अनुच्छेद २१ के तहत नहीं आती है। सरकारी वकील ने कहा- इस सवाल से किसी कानून का कोई संबंध नहीं है। सुप्रीम कोर्ट कोई सुपर प्लानिंग ऑथरिटी नहीं है जो यह फैसला करे कि गैस प्लांट कहां लगाया जाए या कितनी बिजली की जरूरत है। अदालतों को ऐसे मामलों में दखल नहीं देना चाहिए।
चूंकि न्यायिक सक्रियता को काफी हद तक जन समर्थन हासिल रहा है, इसलिए काफी समय तक सरकारें या राजनीतिक दल तब खुलकर इसके खिलाफ नहीं आए। लेकिन मजदूर अधिकारों पर चोट करने वाले कई न्यायिक फैसलों, संविधान की नौवीं अनुसूची को बेअसर करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले और अब ओबीसी आरक्षण पर रोक लगाए के बाद की स्थितियों से माहौल बदलता नजर आ रहा है। पुलिस अधिकारों पर विभिन्न राज्य सरकारों की प्रतिक्रिया से भी यह जाहिर होता है।
बहरहाल, पुलिस सुधार का एक और मौजूदा संदर्भ इसको लेकर लोकतांत्रिक समूहों में ज्यादा जोश पैदा नहीं कर पा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार लागू करने संबंधी आदेश एक जन हित याचिका पर दिया। इस जन हित याचिका से जो नाम जुड़े हैं, उनके साथ नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष की साख नहीं जुड़ी हुई है। बल्कि वो नाम सिक्युरिटी एस्टैबलिशमेंट की उस सोच के ज्यादा करीब हैं, जो बुनियादी तौर पर नागरिक अधिकारों के खिलाफ है। अगर आप लंबे समय से मानव अधिकार संगठनों के खिलाफ रहे हों, सख्ती को विभिन्न प्रकार के असंतोष से भड़के संघर्षों से निपटने का सबसे सही तरीका मानते हों, फांसी जैसी अमानवीय और अपराध समाजशास्त्र के गहरे अध्ययन से बेमतलब साबित हो चुकी सजा के समर्थक हों, टेलीविजन की बहसों में आपको रूढ़िवादी सोच की नुमाइंदगी के लिए बुलाया जाता हो और आपका कुल रुख व्यापक लोकतांत्रिक संदर्भ के खिलाफ हो, तो आपकी ऐसी किसी पहल को संदेह से देखे जाने का पर्याप्त आधार पहले से मौजूद रहता है। ऐसी पहल की निष्पक्षता संदिग्ध रहती है और यह सवाल कायम रहता है कि क्या इस पहल के पीछे सचमुच जन अधिकारों की वास्तविक चिंता है?
सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक हस्तक्षेप से पुलिस को मुक्त करने के लिए केंद्र और राज्यों के स्तर पर सुरक्षा आयोग बनाने, पुलिसकर्मियों की सेवा संबंधी सभी मामलों पर फैसला लेने के लिए पुलिस एस्टैबलिशमेंट बोर्ड गठित करने और पुलिस संबंधी जनता की शिकायतों पर विचार के लिए पुलिस शिकायत प्राधिकरण बनाने का आदेश दिया है। इन संस्थाओं के जरिए पुलिस के प्रबंधन और प्रशासन को बेशक फर्क आ सकता है। लेकिन इस संदर्भ में कुछ राज्यों की यह शिकायत भी उतनी ही जायज है कि आखिर उस हालत में पुलिस की जवाबदेही किसके प्रति होगी? क्या तब पुलिस विधायिका के प्रति जवाबदेह रहेगी और कार्यपालिका सुरक्षा संबंधी मामलों में अगर फौरन फैसले लेने चाहेगी तो क्या उसके रास्ते में नई संस्थाएं रुकावट नहीं बनेंगी? यहां यह गौरतलब है कि राजनीतिक कार्यपालिका के तहत पुलिस के रहने के कई नुकसान हैं, तो कुछ फायदे भी हैं। यह ठीक है कि राज्यों में मौजूद सरकारों के हित में पुलिस का उपयोग और कई बार दुरुपयोग भी होता है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि पुलिस के कार्यों के लिए कार्यपालिका की जवाबदेही बनी रहती है। एक स्वायत्त पुलिस के कार्यों के लिए आखिर जवाबदेह कौन होगा? यहां यह ध्यान में रखने की बात है कि हम एक निरपेक्ष माहौल में नहीं रहते हैं। पुलिस विभाग भी समाज के व्यापक सत्ता ढांचे के बीच बनता और काम करता है। सामाजिक पूर्वाग्रह पुलिसकर्मियों में उतना ही देखने को मिलता है, जितना की आम लोगों में। पुलिस की कार्रवाइयों में अक्सर जातीय, वर्गीय और सांप्रदायिक पूर्वाग्रह के लक्षण देखने को मिलते हैं। पुलिस के अंदरूनी ढांचे में मौजूदा सामाजिक विषमता का प्रभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है। जब जनतांत्रिक संदर्भ में पुलिस सुधारों की बात होती है तो इस अंदरूनी ढांचे में सुधार भी एजेंडे में शामिल रहता है। सदियों से शोषित और सत्ता के ढांचे से आज भी बाहर समूहों को कैसे उनकी आबादी के अनुपात में पुलिस के भीतर नुमाइंदगी दी जाए और कैसे उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रिया का हिस्सा बनाया जाए, पुलिस सुधार का यह एक अहम पहलू है। अल्पसंख्यकों की नुमाइंदगी पुलिस में कैसे बढ़े और पुलिसकर्मियों की कैसे ऐसी पेशेवर ट्रेनिंग हो, जिससे वो सांप्रदायिक तनाव के वक्त निष्पक्ष रूप से काम करें, यह पुलिस सुधार का बहुत अहम बिंदु है।
लेकिन दुर्भाग्य से न तो पुलिस सुधारों के लिए दायर याचिका में इन बातों की जरूरत समझी गई है और न सुप्रीम कोर्ट ने इन असंतुलनों को दूर करने के लिए कोई आदेश दिए हैं। पुलिस की सामाजिक जवाबदेही तय करने का कोई उपाय भी नहीं बताया गया है, सिवाय पुलिस शिकायत प्राधिकरण के गठन की बात को छोड़कर। जबकि अगर मानव अधिकार सरंक्षण कानून १९९३ पर अमल करते हुए हर राज्य में मानव अधिकार आयोग बन जाएं और जिलों के स्तर पर मानवाधिकार अदालतें स्थापित हो जाएं तो ऐसे प्राधिकरण की शायद कोई जरूरत नहीं रहेगी।
दरअसल, इस संदर्भ में गौर करने की सबसे अहम बात यह है कि पुलिस सुधार एक राजनीतिक एजेंडा है। यह जन अधिकारों के संघर्ष से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। सामाजिक और आर्थिक सत्ता का ढांचा निरंकुश हो और पुलिस पेशेवर एवं लोकतांत्रिक ढंग से काम करे, ऐसा भ्रम सिर्फ दक्षिणपंथी आदर्शवाद का ही हिस्सा हो सकता है, जिसमें हवाई मूल्यों की बात दरअसल व्यवस्था में अंतर्निहित शोषण और विषमता को जारी रखने के लिए की जाती है। या अधिक से अधिक यह मध्यवर्गीय फैन्टेसी का हिस्सा हो सकता है, जो अपने समाज के यथार्थ से कटे रहते हुए समस्याओं के मनोगत समाधन ढूंढती रहती है।
हकीकत यह है कि भारत या दुनिया के विभिन्न समाजों में जिस हद तक लोकतंत्र स्थापित हो सका है और आम लोगों ने अपने जितने अधिकार हासिल किए हैं, वो राजनीतिक संघर्षों के जरिए संभव हुआ है। पुलिस सुधारों के लिए भी राजनीतिक संघर्ष से अलग कोई और रास्ता नहीं है। संघर्ष औऱ उससे पैदा होने वाली जन चेतना सरकारों पर वो दबाव पैदा करती हैं, जिससे वो कोई सकारात्मक पहल करने को मजबूर होती हैं। पिछले एक दशक का ही अनुभव यह है कि लालू प्रसाद यादव के लिए अगर मुस्लिम वोट अहम होते हैं तो उनके सत्ता काल में पुलिस दंगों को रोकने का कारगर औजार साबित होती है। नरेंद्र मोदी के राज में पुलिस दंगों में मददगार बन जाती है। वामपंथी मोर्चे की सरकार के तहत पुलिस का जनता से व्यवहार बदला हुआ नजर आता है और जब मायावती सत्ता में होती हैं तो उत्तर प्रदेश के दलित पुलिस का एक अलग ढंग का रुख देखते हैं। इन मिसालों को पुलिस के दुरुपयोग का सबूत भी कहा जाता है, लेकिन यह भी कहा जा सकता है कि पुलिस तभी जनतांत्रिक ढंग से पेश आती है, जब सत्ता का ढांचा ज्यादा जनतांत्रिक होता है। बेशक, पुलिस को एक हद तक स्वायत्ता मिलनी चाहिए, मगर यह स्वायत्तता पूरे राजनीतिक संदर्भ से अलग नहीं हो सकती। सुप्रीम कोर्ट का आदेश इस संदर्भ से कटा हुआ लगता है, इसीलिए उससे ज्यादा कुछ ठोस हासिल होने की उम्मीद असल में एक मृगमरीचिका साबित हो सकती है।

Friday 27 April 2012

मंदी और इंटरनेट की गहरी मार

भारत में प्रिंट मीडिया अपने खुशहाल दौर में है। अखबारों का सर्कुलेशन बढ़ रहा है और इसी के अनुपात में उनकी आमदनी भी बढ़़ रही है। हर साल दो बार आने वाले इंडियन रीडरशिप सर्वे (आईआरएस) के आंकड़े अखबार घरानों का उत्साह कुछ और बढ़ा जाते हैं। लेकिन यही बात आज पूरी दुनिया के साथ नहीं है। बल्कि धनी देशों में आज प्रिंट मीडिया गहरे संकट में है। संकट पिछले एक दशक से गहराता रहा है, लेकिन पिछले दो वर्षों में आर्थिक मंदी ने कहा जा सकता है कि अखबार मालिकों की कमर तोड़ दी है। आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) की ताजा रिपोर्ट ने भी अब इस बात की पुष्टि कर दी है। साफ है कि प्रसार संख्या और विज्ञापन से आमदनी दोनों ही में तेजी से गिरावट आई है। इस रिपोर्ट के इन निष्कर्षों पर गौर कीजिएः

- ओईसीडी के ३० सदस्य देशों में से करीब २० में अखबारों की पाठक संख्या गिरी है। नौजवान पीढ़ी में पाठक सबसे कम हैं। यह पीढ़ी प्रिंट मीडिया को अपेक्षाकृत कम महत्त्व देती है।
- साल २००९ ओईसीडी देशों में अखबारों के लिए सबसे बुरा रहा। सबसे ज्यादा गिरावट अमेरिका, ब्रिटेन, ग्रीस, इटली, कनाडा और स्पेन में दर्ज की गई।
- २००८ के बाद अखबार उद्योग में रोजगार खत्म होने की रफ्तार तेज हो गई। खासकर ऐसा अमेरिका, ब्रिटेन, नीदरलैंड और स्पेन में हुआ।

यह रिपोर्ट इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इसमें न सिर्फ अखबारों के सामने गहराती समस्याओं का जिक्र हुआ है, बल्कि इसने धनी देशों के मीडिया उद्योग की अर्थव्यवस्था और इंटरनेट के बढ़ते प्रभाव के असर की भी विस्तार से चर्चा की गई है। मसलन, इससे यह बात सामने आती है कि आज दुनिया भर में अखबार सबसे ज्यादा विज्ञापन पर निर्भर हैं। ओईसीडी देशों में उनकी करीब ८७ प्रतिशत कमाई विज्ञापन से होती है। २००९ में अखबारों के ऑनलाइन संस्करणों की आमदनी में भारी गिरावट आई। इसका हिस्सा उनकी कुल आमदनी में महज चार फीसदी रह गया।

जहां तक अखबार घरानों के खर्च का सवाल है, तो सबसे ज्यादा लागत अखबार छापने (प्रोडक्शन), रखरखाव, प्रशासन, प्रचार और वितरण पर आता है। ये खर्च स्थायी हैं, इसलिए मंदी के समय इसमें कटौती आसान नहीं होती और इस वजह से अखबारों के लिए बोझ बहुत बढ़ जाता है। अखबारों की प्रसार संख्या के लिए बड़ी चुनौती इंटरनेट से पैदा हो रही है। कुछ ओईसीडी देशों में तो आधी से ज्यादा आबादी अखबार इंटरनेट पर ही पढ़ती है। दक्षिण कोरिया में यह संख्या ७७ फीसदी तक पहुंच चुकी है। कोई ऐसा ओईसीडी देश नहीं है, जहां कम से कम २० प्रतिशत लोग अखबार ऑनलान ना पढ़ते हों। इसके बावजूद इंटरनेट पर खबर के लिए पैसा देने की प्रवृत्ति बहुत कमजोर है।

दरअसल, मजबूत रुझान यह है कि लोग खबर को कई रूपों में भी पढ़ते हैं और इंटरनेट में भी उनमें से एक माध्यम है। ऐसा देखा गया है कि ऑनलाइन अखबार पढ़ने वालों में ज्यादा संख्या उन लोगों की ही होती है, जो छपे अखबारों को पढ़ते हैं। इसका अपवाद सिर्फ दक्षिण कोरिया है, जहां छपे अखबार पढ़ने का चलन तो कम है, मगर इंटरनेट पर बड़ी संख्या में लोग अखबार पढ़ते हैं।

ऐसा माना जाता है कि युवा वर्ग इंटरनेट पर खबर का सबसे बड़ा पाठक वर्ग है। लेकिन ओईसीडी देश में देखा गया है कि सबसे ज्यादा ऑनलाइन खबर २५ से ३४ वर्ष के लोग पढ़ते हैं। लेकिन ताजा अध्ययन का यह निष्कर्ष है कि आने वाले समय में ऐसे लोगों की संख्या तेजी से बढ़ेगी, जो सिर्फ इंटरनेट पर ही खबरें पढेंगे। हालांकि इसमें इस बात पर चिंता भी जताई गई है कि युवा पीढ़ी के लोग उन खबरों को बहुत कम पढ़ते हैं, जिन्हें परंपरागत रूप से समाचार माना जाता है।

सभी ओईसीडी देशों में ऑनलाइन न्यूज वेब साइट्स पर आने वाले लोगों की संख्या तेजी से बढ़ी है। अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक कुल जितने लोग इंटरनेट पर आते हैं, उनमें से करीब पांच फीसदी खबरों की साइट पर भी जाते हैं। बड़े अखबारों का अनुभव है कि अब रोज लाखों लोग उनके पेजों पर आते हैं। यानी इंटरनेट समाचार का माध्यम तो बन गया है, लेकिन मुश्किल यह है कि जिस साइट पर समाचार के लिए पैसा मांगा जाता है, लोग वहां जाना छोड़ देते हैं।

धनी देशं में अखबार पहले से ही इंटरनेट की चुनौती का सामना कर रहे थे। २००८ में आई आर्थिक मंदी ने उनकी मुसीबत बढ़ा दी। तब अनेक अखबारों के बंद हो जाने का अंदाजा लगाया जाने लगा। अमेरिका में बोस्टन ग्लोब और सैन फ्रैंसिस्को क्रोनिकल नाम के अखबारों के बंद होने की अटकलें जब फैलीं तो सनसनी फैल गई। जो अखबार बंद होने के कगार पर नहीं थे, उनकी सेहत भी बहुत अच्छी नहीं थी। अमेरिकन सोसायटी ऑफ न्यूज एडिटर्स के मुताबिक २००७ के बाद से अमेरिका में १३,५०० पत्रकारों की नौकरियां चली गई हैं। लागत में कटौती प्रचलित शब्द हो गया। न्यूजपेपर एसोसिएशन ऑफ अमेरिका के मुताबिक २००८ की पहली तिमाही में अखबारों और उनकी वेबसाइटों को मिलने वाले विज्ञापन में ३५ प्रतिशत की गिरावट आई। सर्कुलेशन में भी भारी गिरावट दर्ज की गई।

संकट यूरोप में भी था। वहां युवा पीढ़ी के इंटरनेट को खबर का मुख्य माध्यम बनाने की समस्या पहले से ही कहीं ज्यादा रही है। ऐसा देखा गया है कि ३५ वर्ष से कम उम्र के बहुत से लोग अब इंटरनेट पर खबर और विश्लेषण पढ़ लेते हैं और अगली सुबह अखबार को छूते तक नहीं हैं। आर्थिक मंदी के दौर यूरोप में यह देखने को मिला कि विज्ञापन अखबार से हटकर वेब साइट्स को जाने लगे। लेकिन पेच यह था कि ये विज्ञापन अखबारों की वेबसाइटों को नहीं, बल्कि सर्च इंजन्स को मिल रहे थे। पिछले दो साल में पूरे यूरोप के मीडिया जगत में अखबारों के अंधकारमय भविष्य की खूब चर्चा रही है।

अखबारों की बुरी हालत का एक उदाहरण फ्रांस का अखबार ले मोंद है। इस अखबार को फ्रांस की अंतरात्मा कहा जाता है। इसकी विशेषता यह रही है कि इसका कोई मालिक कोई पूंजीपति नहीं है। यह पत्रकारों द्वारा संचालित अखबार रहा है। लेकिन आज अखबार दीवालिया होने के कगार पर है। अखबार चलाने वाली कंपनी पर आज १२ करोड़ डॉलर का कर्ज है। अब दीवालिया होने से बचने का एक ही उपाय है कि कंपनी के शेयर किसी पूंजीपति को बेचे जाएं। अगर ऐसा होता है, तो यह पत्रकारों की स्वतंत्रता की कीमत पर होगा। लेकिन इसके अलावा शायद ही कोई विकल्प है।

दरअसल, आर्थिक मंदी और इंटरनेट की चुनौती ने अमेरिका और यूरोप में अखबारों का पूरा स्वरूप ही बदल दिया है। ब्रिटिश पत्रिका द इकॉनोमिस्ट में छपी एक रिपोर्ट से अखबारों के बदले स्वरूप का अंदाजा लगता है। जब मंदी की गहरी मार पड़ी, तो खासकर अखबारों ने अपना वजूद बचाने के लिए दो तरीके अपनाए- कवर प्राइस यानी दाम बढ़ाना और लागत घटाना। बड़ी संख्या में पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मचारियों की नौकरी गई और बहुत से पत्रकारों को अवैतनिक छुट्टी पर भेज दिया गया। कुछ अखबारों में तो एक चौथाई पत्रकार या तो हटा दिए गए या बिना वेतन की छुट्टी पर भेजे गए। इसके अलावा अखबारों ने अपने कई ब्यूरो बंद कर दिए। खास मार विदेशों में स्थित ब्यूरो पर पड़ी।

एक अनुमान के मुताबिक आज अमेरिकी अखबारों में वेतन पर होने वाला खर्च मंदी से पहले की अवधि की तुलना में चालीस फीसदी घट गया है। जिन घरानों के एक से ज्यादा प्रकाशन निकलते हैं, उन्होंने कंटेन्ट साझा करने का नियम अपना लिया। मसलन, अलग-अलग अखबारों और पत्रिकाओं ने एक विषय को कवर करने के लिए पहले जहां अलग-अलग पत्रकार रखे थे, वहीं अब एक पत्रकार द्वारा लिखी गई रिपोर्ट या विश्लेषण ही उस घराने के सभी प्रकाशन छापने लगे।

ये तो वे बदलाव हैं, जिनका पाठकों से सीधा रिश्ता नहीं है। पाठकों को जो बदलाव देखने या झेलने पड़े, उनका संबंध प्रकाशनों के बदले स्वरूप से है। आज अमेरिका के ज्यादातर अखबार पहले की तुलना में कम पेजों वाले हो गए हैं और उनका कंटेन्ट फोकस्ड यानी कुछ विषयों पर केंद्रित हो गया है। मसलन, कई अखबारों ने नई कारों, अन्य दूसरे महंगे उत्पादों और नई फिल्मों की समीक्षा के कॉलम बंद कर दिए हैं। अब जोर उन सूचनाओं को देने पर पर है, जिसका पाठकों से सीधा वास्ता है। यानी पूरी दुनिया और हर क्षेत्र की खबर पेश करने के बजाय अब अखबार किसी खास क्षेत्र और खास वर्ग की सूचना देने की नीति पर चल रहे हैं। मार्केटिंग टीमें उन वर्गों और क्षेत्रों की पहचान पर ज्यादा ध्यान दे रही हैं, जिनमें अखबार की पहुंच है और उनके माफिक ही अखबार के स्वरूप को ढाला जा रहा है।

परिणाम यह है कि अखबार आज ज्यादातर स्थानीय और खेल की खबरों से भरे रहते हैं। अखबार इन खबरों की रिपोर्टिंग में ही अपने संसाधन लगा रहे हैं। उन पाठकों की चिंता छोड़ दी गई है, जो दुनिया भर और गंभीर मुद्दों के बारे में पढ़ना चाहते हैं। माना जा रहा है कि उन पाठकों की मांग पूरी करना महंगा है, और वैसे पाठकों में विज्ञापनदाताओं की ज्यादा दिलचस्पी नहीं होती।

जानकारों का कहना है कि इन तरीकों से मंदी के दौर में अमेरिकी अखबारों ने अपना वजूद बचा लिया है। मगर कंप्यूटर और आई-पैड पर खबर पढ़ने की बढ़ती प्रवृत्ति से पैदा होने वाली चुनौती का तोड़ वे नहीं ढूंढ पाए हैं। समस्या यह है कि नौजवान पीढ़ी के लोग खबर के लिए पैसा नहीं देना चाहते- चाहे वे अखबार ऑनलाइन पढ़ते हों या ऑफलाइन। अखबारों के दीर्घकालिक भविष्य के लिए इसे बड़ी चुनौती माना जा रहा है।

बहरहाल, अखबारों की ये मुश्किलें अभी धनी देशों की देशों की समस्या ही हैं। विकासशील देशों में रुझान उलटा है। वहां अखबार तेजी से फैल रहे हैं। मसलन, ब्राजील में पिछले एक दशक में सभी अखबारों के पाठकों की कुल संख्या दस लाख बढ़ी है। आज वहां ८२ लाख लोग रोज अखबार पढ़ते हैं। मंदी के दौर में थोड़े समय के लिए वहां भी विज्ञापनों से अखबारों की आमदनी घटी, लेकिन जल्द ही पुरानी स्थिति बहाल हो गई। ब्राजील में तेजी से फैलता मध्य वर्ग अखबारों को नया आधार दे रहा है। लेकिन कंटेन्ट की चुनौती वहां भी है। एक अध्ययन के मुताबिक ब्राजील के अखबारों में ज्यादातर अपराध और सेक्स की खबरें छपती हैं। वहां २००३ में टॉप दस अखबारों में से सिर्फ तीन टैबलॉयड थे, लेकिन इनकी संख्या आज पांच हो चुकी है।

ऐसा ही रुझान हम भारत में भी देख सकते हैं। भारत दुनिया के उन चंद देशों में है, जहां प्रिंट मीडिया का खुशहाल बाजार है। प्रसार संख्या और विज्ञापन से आने वाली रकम- दोनों में हर साल लगातार बढ़ोतरी हो रही है। हिंदी के कम से कम दो अखबारों की पाठक संख्या रोजाना दो करोड़ से ऊपर है। अंग्रेजी के एक अखबार की रोजाना पाठक संख्या सवा करोड़ से ऊपर है। पचास लाख से ऊपर पाठक संख्या वाले अखबार तो कई हैं। इस खुशहाली की बड़ी वजह भारत की आबादी है। पिछले २० वर्षों में देश में शिक्षा का तेजी से प्रसार हुआ है। छोटे शहरों और कस्बों में नव-साक्षरों और नव-शिक्षितों का एक बड़ा वर्ग सामने आया है। यही तबके हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के अखबारों का बाजार हैं। मध्य वर्ग के उभार के साथ अंग्रेजी अखबारों का बाजार भी फैला है।

भारतीय अखबारों के सामने इंटरनेट की चुनौती भी अभी नहीं है। इसकी एक वजह इंटरनेट और ब्रॉडबैंड का कम प्रसार और दूसरी वजह इंटरनेट की भाषा आज भी मुख्य तौर पर अंग्रेजी का होना है। इसलिए भारतीय भाषाओं में पढ़ने वाले पाठकों के पास खबर पढ़ने का आज भी एक ही माध्यम है और वह है अखबार। अखबारों का स्वरूप लगातार निखरता गया है। आज प्रोडक्शन क्वालिटी के लिहाज से भारत के अखबार दुनिया के किसी भी हिस्से के अखबारों को टक्कर दे सकते हैं। टीवी न्यूज चैनल अपनी पहुंच और कवरेज के रेंज- दोनों ही लिहाज से एक छोटे दायरे तक सीमित हैं और इसलिए भी अखबारों के व्यापक आधार में सेंध लगाने की हालत में वे नहीं हैं।

लेकिन बात अगर कटेन्ट की करें, तो भारतीय मीडिया के सामने भी वही सवाल और चुनौतियां हैं, जो आज विकसित दुनिया में दिखाई देती हैं। कहा जा सकता है कि मीडिया के सामने आज दोहरा संकट है। पश्चिमी मीडिया मार्केटिंग के संकट से ग्रस्त है और इसका असर उसके कंटेन्ट पर पड़ रहा है। जबकि भारतीय मीडिया मार्केटिंग के लिहाज से खुशहाल है, लेकिन कंटेन्ट के निम्नस्तरीय होने का संकट उसके सामने भी है।

क्रिकेट एक धर्म

तिरंगा ऊंचा रहे हमारा

रविश गुप्ता

ट्वेन्टी ट्वेन्टी विश्व कप क्रिकेट टूर्नामेंट के फाइनल में भारत से हारने के बाद पाकिस्तान के कप्तान शोएब मलिक ने उनकी टीम को समर्थन देने के लिए पाकिस्तान के लाखों क्रिकेट प्रेमियों के साथ-साथ दुनिया भर के मुसलमानों का भी शुक्रिया अदा किया। एक रोमांच और उत्तेजना से भरपूर मैच के बाद एक टीम के कप्तान का इस तरह खेल को मजहबी रंग देने पर भले ही ज्यादातर लोगों का ध्यान न गया हो, लेकिन यह एक ऐसी सोच की मिसाल है, जिस पर चर्चा जरूर होनी चाहिए। क्या शोएब मलिक सचमुच यह मानते हैं कि भारतीय टीम के दो सितारे यूसुफ और इरफान पठान पाकिस्तानी टीम का समर्थन कर रहे थे? भारत की जीत के बाद इन दोनों के दमकते चेहरे और यूसुफ की पीठ पर किसी बच्चे की तरह चढ़कर तिरंगा लहराते हुए घूमते इरफान पठान में क्या उन्हें पाकिस्तानी टीम का समर्थक नज़र आया? या क्या भारतीय खिलाड़ियों की हर कामयाबी पर पूरे जोश से तालियां बजाते और हर्षध्वनि करते अभिनेता शाह रुख खान को शोएब मलिक ने अपनी ही टीम का एक प्रशंसक मान लिया?
भारत की जीत के बाद कप्तान महेंद्र सिंह धोनी से जब रवि शास्त्री ने प्रतिक्रिया ने पूछी तो उन्होंने अपने साथी खिलाड़ियों की तरफ इशारा किया। कहा- यह उनके साझा प्रयासों की उपलब्धि है। उन खिलाड़ियों में तिरंगा उठाए यूसुफ पठान थे, कंधे पर तिरंगा लपटे हरभजन सिंह थे, उत्साह में उछलते रॉबिन उथप्पा थे और साझा सफलता के गर्व से सिर ऊंचा किए भारत के वे दूसरे नौजवान थे, जिन्होंने कुछ ही पल पहले तमाम अनुमानों को झुठलाते हुए कामयाबी की एक अनोखी कहानी लिख दी थी। अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले और अलग भौगोलिक परिस्थितियों में पले-बढ़े इन नौजवानों में मजहब का भेद या मजहबी नज़रिए से सोचने का कोई संकेत वहां नहीं था। इस अर्थ में वे वास्तव में साझा संस्कृति पर आधारित उस राष्ट्र के नुमाइंदे थे, जिसका विचार भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पैदा हुआ और जिसे गांधी एवं नेहरू ने साकार रूप दिया।
इस राष्ट्र के सामने आज बहुत सी चुनौतियां हैं। एकता की जो धारणा गांधी, नेहरू और दूसरे प्रगतिशील चिंतकों ने रखी, उसके सामने सांप्रदायिकता, जातिवाद और संकीर्ण सोच से गहरा खतरा बना हुआ है। साथ ही इस एकता के महत्त्वपूर्ण आधार सामाजिक और आर्थिक न्याय का लक्ष्य आज भी बहुत दूर नज़र आता है। इसके बावजूद पिछले साठ साल की यात्रा में भारतीय राष्ट्र ने अपने को आधुनिक सिद्धांतों के आधार पर संगठित किया है और आज वह अपने लक्ष्यों को पाने के प्रति ज्यादा आत्मविश्वास से भरा हुआ है।
इस राष्ट्र की प्रतिक्रिया में जिस मुस्लिम राष्ट्र की धारणा मुस्लिम लीग और उसके सबसे बड़े नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने आगे बढ़ाई, उसके आधार पर बने पाकिस्तान के हाल पर भी एक बार जरूर गौर किया जाना चाहिए। मुसलमानों के नाम पर बना यह देश १९७१ में भाषा के नाम पर दो भागों में बंट गया। वहां लोकतंत्र आज भी महज एक सपना है और वहां सैनिक तानाशाह अब अपना वजूद बचाए रखने के लिए मुस्लिम कट्टरपंथ से लड़ रहे हैं। आखिर एक मुस्लिम राष्ट्र में वे किस विचार के लिए इस्लामी कट्टरपंथ से संघर्ष कर रहे हैं? शोएब मलिक बेहतर होता सारी दुनिया के मुसलमानों का नुमाइंदा होने का दावा करने से पहले बलूचिस्तान, वज़ीरीस्तान और उत्तर-पूर्व सीमा प्रांत के मुसलमानों और पाकिस्तानी पंजाब एवं सिंध के मुसलमानों के बीच एकता की अपील कर लेते।
बहरहाल, शोएब मलिक की सोच पाकिस्तान की सारी आधुनिक पीढ़ी की सोच नहीं है, यह बात उनके तुरंत बाद मंच पर आए शाहिद अफ़रीदी ने जता दी। उन्होंने क्रिकेट और भाईचारे की बात की। खेल के रोमांच को हार जीत से ऊपर बताया। दरअसल, इसी भावना की आज सबसे ज्यादा जरूरत है। पिछले मार्च-अप्रैल में वेस्ट इंडीज में हुए विश्व कप के बाद ऐसी खबरें खूब आईं, जिनमें बताया गया कि कैसे पाकिस्तानी खिलाड़ियों पर मजहब का रंग चढ़ता जा रहा है। कैसे खेल से ज्यादा धार्मिक कार्यों को वे अहमियत देने लगे हैं। तब पहले दौर में पाकिस्तान के बाहर हो जाने के पीछे इसे भी एक वजह बताया गया। उसके बाद से पाकिस्तान टीम में कई नए चेहरे आए हैं। शोएब मलिक की टीम ने अपने खेल में ताजगी और नए जोश का परिचय दिया है। इसकी तारीफ करने के लिए मुसलमान होने की जरूरत नहीं है। उन्होंने भारतीय क्रिकेट प्रेमियों का दिल भी जीता है और हम भारत के लोगों की यह दिली तमन्ना है कि पाकिस्तान की यह नई टीम क्रिकेट में नई ऊंचाइयों तक पहुंचे।
आखिर क्रिकेट का भविष्य भारत, पाकिस्तान और दक्षिण एशिया के दो देशों पर निर्भर है। अब भारतीय टीम के चैंपियन होने के साथ ही देश में क्रिकेट के दिन फिर चमकने लगे हैं। जीत के बाद जैसा जश्न देखने को मिला, वैसा कभी कभी ही होता है। दरअसल, भारत में क्रिकेट की यही खास अहमियत है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक मकसद, एक जैसे नायक, एक जैसी खुशी और दुख सारे देश को बांध देता है। इसीलिए क्रिकेट को आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद का एक खास पहलू माना जाता है।
भारत के लिए क्रिकेट की ऐसी अहमियत की वजहें ऐतिहासिक और देश की मौजूदा अर्थव्यवस्था से जुड़ी हैं। ऐतिहासिक वजह इस खेल का पुरानी औपनिवेशिक संस्कृति का हिस्सा रहना है। अंग्रेजों के साथ आया यह खेल देश में अभिजात्य होने का एक प्रतिमान बना और इसलिए इसे एक विशेष दर्जा मिला। वन डे क्रिकेट शुरू होने और १९८३ में भारत के इसमें विश्व चैंपियन बनने के साथ खेल को जो अभूतपूर्व लोकप्रियता मिली, उसने इसे कॉरपोरेट जगत के लिए अहम बना दिया। टीवी मीडिया के प्रसार के साथ अब यह खेल उत्पादों को लक्ष्य बाज़ार तक प्रचारित करने का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम बन चुका है। पिछले विश्व कप में भारत के पहले दौर में बाहर हो जाने से क्रिकेट की अर्थव्यवस्था को लेकर कई शंकाएं पैदा हुईं। लेकिन जानकार तब भी मानते थे कि इस खेल के साथ पैसे का इतना बड़ा दांव लगा हुआ है, कि इसकी हैसियत आसानी से नहीं घटेगी।
अब ट्वेन्टी-ट्वेन्टी विश्व कप में भारत के चैंपियन होने के साथ ही न सिर्फ इस खेल को ले तब पैदा हुई आशंकाएं दूर हो गई हैं, बल्कि क्रिकेट को अभूतपूर्व लोकप्रियता भी मिल गई है। अखबारी रिपोर्टों के मुताबिक इस विश्व कप में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए ग्रुप मैच को करीब १५ टीआरपी मिली, जो एक रिकॉर्ड है। जाहिर है, फाइनल मैच को इससे काफी ज्यादा दर्शक मिले होंगे। फाइनल के लिए प्रसारक चैलन ने प्रति सेकंड के विज्ञापन स्लॉट को साढ़े सात लाख से दस लाख रुपए तक में बेचा और यह भी अभूतपूर्व है। फाइनल के पहले भारत के खेले छह मैचों से इस चैनल को ३५ करोड़ रुपए की कमाई हुई, जबकि बिना भारत वाले मैचों से उनसे १२ से १५ करोड़ रुपए तक कमाए। टेस्ट या वन डे में जिस मैच में भारत न हो उसमें दर्शकों की कम ही दिलचस्पी होती है। लेकिन ट्वेन्टी-ट्वेन्टी में इन मैचों को भी काफी दर्शक मिले।
लेकिन ट्वेन्टी ट्वेन्टी विश्व कप टूर्नामेंट ने यह भी याद दिलाया है कि क्रिकेट एक विश्व खेल नहीं है। यह लगातार दक्षिण एशिया की परिघटना बनता जा रहा है और भारतीय बाजार पर निर्भर होता जा रहा है। (डेमोक्रेटिक डिस्कोर्स में दिए द इकॉनोमिस्ट का लेख २०:२० ही अब क्रिकेट का भविष्य देखें) दक्षिण अफ्रीका गए भारतीय संवाददाताओं ने बताया है कि कैसे वहां स्टेडियमों के बाहर इस विश्व कप का कोई माहौल नहीं था। बल्कि वहां के लोग २०१० में दक्षिण अफ्रीका में होने वाले विश्व कप और अभी चल रहे रग्बी विश्व कप की चर्चाओं में ज्यादा दिलचस्पी लेते रहे। ऐसी रिपोर्ट्स ऑस्ट्रेलिया से भी है। द हिंदुस्तान टाइम्स के रिपोर्टर ने लिखा कि अब चाहे क्रिकेट मैच कहीं हो, भारतीय टीम के लिए घरेलू माहौल ही होता है (इंग्लैंड और दक्षिण अफ्रीका में तो यह बात बिल्कुल सही है।). इसलिए कि हर जगह स्टेडियम के भीतर ज्यादातर दर्शक भारतीय या भारतीय मूल के होते हैं, वे तिरंगा लहराते हैं और भारतीय टीम के लिए हर्षध्वनि करते हैं। क्रिकेट के भूमंडलीकरण के नाम पर जिन देशों में क्रिकेट को फैलाया जा रहा है, वहां प्रबंधक, खिलाड़ी और दर्शक भी ज्यादातर दक्षिण एशियाई मूल के होते हैं।
इन तथ्यों की रोशनी में हम शायद भारतीय टीम की ताजा सफलता को ज्यादा सही परिप्रक्ष्य में समझ सकते हैं। यह सफलता पर पूरे भारतीय राष्ट्र को गर्व है। यह सफलता भारत के नए आत्मविश्वास और नई संघर्ष भावना की प्रतीक है। और इसीलिए अब शायद यह सही वक्त है, जब हम क्रिकेट से आगे उन खेलों में कामयाबी के भी सपने देखना शुरू करें जो वास्तव में विश्व खेल हैं।  

Thursday 15 March 2012

कन्‍या भूण हत्‍या

कुछ कारण हैं । जो लोग कन्‍या भूण समापन करते हैं ,आज का हाल यह है कि एक लड़की की शादी में अमूमन कम से कम 6 लाख रूपये से अधिक का खर्च आता है । जिसे एकदम निम्‍न श्रेणी का किफायती विवाह कह सकते हैं । क्‍या एक साधारण , सामान्‍य व्‍यक्ति इस खर्च को उठानें की हिम्‍मत जुटा सकता है, जिसकी आमदनीं छह से दस हजार रूपये महीनें हो । ऐसा व्‍यक्ति क्‍या खायेगा, क्‍या पहनेंगा, कैसे अपनें जीवन को  बचायेगा, फिर इस दुंनिया में क्‍या इसी लिये आये हैं कि केवल तकलीफें झेलो और आराम मौज मस्‍ती के लिये सोचो मत । एक कन्‍या को पहले जन्‍म दीजिये,फिर उसकी परवरिश कीजिये । परवरिश कोई ऐसे ही नहीं हो जाती, इसमें तिल तिल करके कितनीं रकम और कितना पैसा खर्च होता है । फिर पढ़ाई मार डालती है । इस मंहगाई के दौर में किस तरह की मंहगी पढ़ायी है, यह किसी से छुपा नहीं है । वर्षों तक  पढायी होती है कितना  पैसा खर्च होता है । लडकियों की सुरक्षा करना भी एक जहमत भरा काम है । पता नहीं कब किसकी बुरी नज़र लगे , कुछ भी शारीरिक अथवा यौन उत्‍पीड़न,  हो सकता है । फिर अंत में लडंका ढूंढिये और शादी करिये । यह कहना और लिखना   जितना आसान है, ऐसा है नहीं ।पढायी तक तो लड़की आपके पास रही , यहां तक तो आपका नियंत्रण रहा । जब योग्‍य वर की तलाश में निकलेंगें तब आटे दाल का भाव पता चलता है  
कन्‍या भ्रूण समापन एक प्रकार की सामाजिक समस्‍या है, जो पूर्णतया धन से जुड़ी है, लेकिन इसके साथ साथ कुछ दूसरे भी कारण हैं । समाज व्‍यक्तियों से बनता है । व्‍यक्तियों के सामनें समस्‍यायें होंगी तो लोग उसका समाधान भी ढूंढेंगे । इन्‍हें जो अपनें हित का समाधान मिलता है तो , वे उसे अपनानें में जरा भी नहीं हिचकिचायेंगे । आज का समाज झंझट पालना कतई नहीं चाहता । मां बाप जानते हैं कि लड़की पैदा करनें में सिवाय नुकसान के कोई फायदा नहीं है । यह विशुद्ध हानि और लाभ के गणित पर आधारित सस्‍वार्थ एकल दर्शन है ।
आज आप शादी करनें जाते हैं तो कम से कम 6 लाख रूपये दहेज में खर्च होगा । यह सबसे किफायती शादी होगी । आज के दिन , जो कन्‍या पैदा होगी उसका विवाह यदि औसत में 30 वर्ष की उम्र में करेंगें तो दहेज की क्‍या हालत होगी । एक अन्‍दाज के मुताबिक यह रकम 40 लाख से साठ लाख के आसपास होंनी चाहिये । क्‍योंकि जिस रफ्तार से मंहगाई बढ़ रही है उससे तो यही स्थिति बनती है । आपके यहां यदि एक लड़की है तो प्रतिवर्ष आपको सवा लाख से लेकर दो लाख रूपये बचानें पड़ेंगे , लडकी के शादी होंनें तक । यह रकम कहां से लायेंगे , यह सोचना आपका काम है । 

कन्‍या भ्रूण समापन एक प्रकार की सामाजिक समस्‍या है, जो पूर्णतया धन से जुड़ी है, लेकिन इसके साथ साथ कुछ दूसरे भी कारण हैं । समाज व्‍यक्तियों से बनता है । व्‍यक्तियों के सामनें समस्‍यायें होंगी तो लोग उसका समाधान भी ढूंढेंगे । इन्‍हें जो अपनें हित का समाधान मिलता है तो , वे उसे अपनानें में जरा भी नहीं हिचकिचायेंगे । आज का समाज झंझट पालना कतई नहीं चाहता । मां बाप जानते हैं कि लड़की पैदा करनें में सिवाय नुकसान के कोई फायदा नहीं है । यह विशुद्ध हानि और लाभ के गणित पर आधारित सस्‍वार्थ एकल दर्शन है । इसमे कतई दो राय नहीं हो सकती है कि इस समस्‍या की मूल में आर्थिक अवस्‍था, सुरक्षा से जुड़े पहलू , अधेड़ अवस्‍था या बृद्धावस्‍था की दहलीज पर घुसते ही मानसिक और शारीरिक टेंशन की समस्‍या , अनावश्‍यक भागदौड़ , लड़के  या योग्‍य वर ढूंढनें की शरीर और मन दोंनों तोड़ देनें वाली कवायदें , भागदौड़ , जब तक लड़का न मिल जाय तब तक का मानसिक टेंशन , बेकार का सिद्ध होंनें वाले उत्‍तर , जलालत से भरा लोंगों का , लड़के वालों का व्‍यवहार झेलकर हजारों बार , लाखों बार यही विचार उठते हैं कि लडकी न पैदा करते तो बहुत अच्‍छा  होता । स्‍वयं को अपराध बोध होंनें लगता है कि बेकार में लड़की पैदा की , एक जलालत और अपनें सिर पर ओढ़ ली । शांति , चैन , मन की प्रसन्‍नता सब सब नष्‍ट हो जाती है । आप जो काम कर रहें हैं , उसमें भी आप पिछड़तें हैं । पास , पडोंस , हेती , व्‍योवहारी , मित्र आदि कहनें लगते हैं कि लड़की क्‍या कुंवारी ही घर पर बैठाये रक्‍खेंगे । आज आप शादी करनें जाते हैं तो कम से कम 6 लाख रूपये दहेज में खर्च होगा । यह सबसे किफायती शादी होगी । आज के दिन , जो कन्‍या पैदा होगी उसका विवाह यदि औसत में 30 वर्ष की उम्र में करेंगें तो दहेज की क्‍या हालत होगी । एक अन्‍दाज के मुताबिक यह रकम 40 लाख से साठ लाख के आसपास होंनी चाहिये । क्‍योंकि जिस रफ्तार से मंहगाई बढ़ रही है उससे तो यही स्थिति बनती है । आपके यहां यदि एक लड़की है तो प्रतिवर्ष आपको सवा लाख से लेकर दो लाख रूपये बचानें पड़ेंगे , लडकी के शादी होंनें तक । यह रकम कहां से लायेंगे , यह सोचना आपका काम है ।   
समस्‍या का समाधान-
 1- कन्‍या भ्रूण हत्‍या की समस्‍या को रोकनें का समाधान केवल व्‍यक्तियों की इच्‍छा पर निर्भर है । मां बाप क्‍या चाहते हैं यह सब उनके विवेक पर छोड़ देना चाहिये । मेंरी सलाह यह है कि यदि पहला बच्‍चा लड़की भ्रूण है , यह पता चल जाय , तो इस पहले भ्रूण का समापन न करायें , किसी भी हालत में । पहले गर्भ का समापन करानें से स्‍थायी बन्‍ध्‍यत्‍व की समस्‍या हो सकती है या किसी गम्‍भीर प्रकार की यौन जननांगों की बीमारी , जो स्‍वास्‍थ्‍य को लम्‍बे अरसे तक बिगाड़ सकती है । प्रथम गर्भ तो किसी हालत में न गिरवायें । यह खतरनाक है ।  
2- आजकल लिंग परीक्षण करना सरल है । यह मां बाप की मर्जी पर र्निभर करता है कि वे कन्‍या पालना चाहते हैं । अगर नहीं चाहते तो इसका समापन कराना ही श्रेयस्‍कर है । अभी समापन कराना सस्‍ता है । एक कन्‍या का पालन जरूर करें, यदि वह प्रथम प्रसव से हो ।

3- यह न विचार करें कि आप के इस कार्य से लिंग का अनुपात कम हो रहा है या अधिक । यह एक सामाजिक और आर्थिक समस्‍या से जुड़ा हुआ पहलू है । इस समस्‍या का समाधान भी समाज को ही करना पडेगा । इसका ठेका आपनें अकेले नहीं ले रखा है ।
 4- लिंग अनुपात की गड़बड़ी से समलैंगिक विवाह को प्रोत्‍साहन मिलेगा  । लड़का , लड़का से और लड़की, लड़की से शादियां करेंगी तो दहेज का प्रश्‍न नहीं होगा । ऐसे ब्‍याह से अपनें देश की जनसंख्‍या की समस्‍या भी कुछ सीमा तक कम होगी ।

5- यदि बाइ-द-वे किसी मजबूरी से कन्‍या जन्‍मना ही चाहें जो जरूर जन्‍म दें । यदि आपको कन्‍या को पालनें पोषनें में दिक्‍कत आ रही तो किसी सुपात्र व्‍यक्ति , निसंतान को कन्‍या जन्‍मतें ही दे दें । यह बहुत बड़ा दान है ।