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Friday 27 April 2012

क्रिकेट एक धर्म

तिरंगा ऊंचा रहे हमारा

रविश गुप्ता

ट्वेन्टी ट्वेन्टी विश्व कप क्रिकेट टूर्नामेंट के फाइनल में भारत से हारने के बाद पाकिस्तान के कप्तान शोएब मलिक ने उनकी टीम को समर्थन देने के लिए पाकिस्तान के लाखों क्रिकेट प्रेमियों के साथ-साथ दुनिया भर के मुसलमानों का भी शुक्रिया अदा किया। एक रोमांच और उत्तेजना से भरपूर मैच के बाद एक टीम के कप्तान का इस तरह खेल को मजहबी रंग देने पर भले ही ज्यादातर लोगों का ध्यान न गया हो, लेकिन यह एक ऐसी सोच की मिसाल है, जिस पर चर्चा जरूर होनी चाहिए। क्या शोएब मलिक सचमुच यह मानते हैं कि भारतीय टीम के दो सितारे यूसुफ और इरफान पठान पाकिस्तानी टीम का समर्थन कर रहे थे? भारत की जीत के बाद इन दोनों के दमकते चेहरे और यूसुफ की पीठ पर किसी बच्चे की तरह चढ़कर तिरंगा लहराते हुए घूमते इरफान पठान में क्या उन्हें पाकिस्तानी टीम का समर्थक नज़र आया? या क्या भारतीय खिलाड़ियों की हर कामयाबी पर पूरे जोश से तालियां बजाते और हर्षध्वनि करते अभिनेता शाह रुख खान को शोएब मलिक ने अपनी ही टीम का एक प्रशंसक मान लिया?
भारत की जीत के बाद कप्तान महेंद्र सिंह धोनी से जब रवि शास्त्री ने प्रतिक्रिया ने पूछी तो उन्होंने अपने साथी खिलाड़ियों की तरफ इशारा किया। कहा- यह उनके साझा प्रयासों की उपलब्धि है। उन खिलाड़ियों में तिरंगा उठाए यूसुफ पठान थे, कंधे पर तिरंगा लपटे हरभजन सिंह थे, उत्साह में उछलते रॉबिन उथप्पा थे और साझा सफलता के गर्व से सिर ऊंचा किए भारत के वे दूसरे नौजवान थे, जिन्होंने कुछ ही पल पहले तमाम अनुमानों को झुठलाते हुए कामयाबी की एक अनोखी कहानी लिख दी थी। अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले और अलग भौगोलिक परिस्थितियों में पले-बढ़े इन नौजवानों में मजहब का भेद या मजहबी नज़रिए से सोचने का कोई संकेत वहां नहीं था। इस अर्थ में वे वास्तव में साझा संस्कृति पर आधारित उस राष्ट्र के नुमाइंदे थे, जिसका विचार भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पैदा हुआ और जिसे गांधी एवं नेहरू ने साकार रूप दिया।
इस राष्ट्र के सामने आज बहुत सी चुनौतियां हैं। एकता की जो धारणा गांधी, नेहरू और दूसरे प्रगतिशील चिंतकों ने रखी, उसके सामने सांप्रदायिकता, जातिवाद और संकीर्ण सोच से गहरा खतरा बना हुआ है। साथ ही इस एकता के महत्त्वपूर्ण आधार सामाजिक और आर्थिक न्याय का लक्ष्य आज भी बहुत दूर नज़र आता है। इसके बावजूद पिछले साठ साल की यात्रा में भारतीय राष्ट्र ने अपने को आधुनिक सिद्धांतों के आधार पर संगठित किया है और आज वह अपने लक्ष्यों को पाने के प्रति ज्यादा आत्मविश्वास से भरा हुआ है।
इस राष्ट्र की प्रतिक्रिया में जिस मुस्लिम राष्ट्र की धारणा मुस्लिम लीग और उसके सबसे बड़े नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने आगे बढ़ाई, उसके आधार पर बने पाकिस्तान के हाल पर भी एक बार जरूर गौर किया जाना चाहिए। मुसलमानों के नाम पर बना यह देश १९७१ में भाषा के नाम पर दो भागों में बंट गया। वहां लोकतंत्र आज भी महज एक सपना है और वहां सैनिक तानाशाह अब अपना वजूद बचाए रखने के लिए मुस्लिम कट्टरपंथ से लड़ रहे हैं। आखिर एक मुस्लिम राष्ट्र में वे किस विचार के लिए इस्लामी कट्टरपंथ से संघर्ष कर रहे हैं? शोएब मलिक बेहतर होता सारी दुनिया के मुसलमानों का नुमाइंदा होने का दावा करने से पहले बलूचिस्तान, वज़ीरीस्तान और उत्तर-पूर्व सीमा प्रांत के मुसलमानों और पाकिस्तानी पंजाब एवं सिंध के मुसलमानों के बीच एकता की अपील कर लेते।
बहरहाल, शोएब मलिक की सोच पाकिस्तान की सारी आधुनिक पीढ़ी की सोच नहीं है, यह बात उनके तुरंत बाद मंच पर आए शाहिद अफ़रीदी ने जता दी। उन्होंने क्रिकेट और भाईचारे की बात की। खेल के रोमांच को हार जीत से ऊपर बताया। दरअसल, इसी भावना की आज सबसे ज्यादा जरूरत है। पिछले मार्च-अप्रैल में वेस्ट इंडीज में हुए विश्व कप के बाद ऐसी खबरें खूब आईं, जिनमें बताया गया कि कैसे पाकिस्तानी खिलाड़ियों पर मजहब का रंग चढ़ता जा रहा है। कैसे खेल से ज्यादा धार्मिक कार्यों को वे अहमियत देने लगे हैं। तब पहले दौर में पाकिस्तान के बाहर हो जाने के पीछे इसे भी एक वजह बताया गया। उसके बाद से पाकिस्तान टीम में कई नए चेहरे आए हैं। शोएब मलिक की टीम ने अपने खेल में ताजगी और नए जोश का परिचय दिया है। इसकी तारीफ करने के लिए मुसलमान होने की जरूरत नहीं है। उन्होंने भारतीय क्रिकेट प्रेमियों का दिल भी जीता है और हम भारत के लोगों की यह दिली तमन्ना है कि पाकिस्तान की यह नई टीम क्रिकेट में नई ऊंचाइयों तक पहुंचे।
आखिर क्रिकेट का भविष्य भारत, पाकिस्तान और दक्षिण एशिया के दो देशों पर निर्भर है। अब भारतीय टीम के चैंपियन होने के साथ ही देश में क्रिकेट के दिन फिर चमकने लगे हैं। जीत के बाद जैसा जश्न देखने को मिला, वैसा कभी कभी ही होता है। दरअसल, भारत में क्रिकेट की यही खास अहमियत है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक मकसद, एक जैसे नायक, एक जैसी खुशी और दुख सारे देश को बांध देता है। इसीलिए क्रिकेट को आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद का एक खास पहलू माना जाता है।
भारत के लिए क्रिकेट की ऐसी अहमियत की वजहें ऐतिहासिक और देश की मौजूदा अर्थव्यवस्था से जुड़ी हैं। ऐतिहासिक वजह इस खेल का पुरानी औपनिवेशिक संस्कृति का हिस्सा रहना है। अंग्रेजों के साथ आया यह खेल देश में अभिजात्य होने का एक प्रतिमान बना और इसलिए इसे एक विशेष दर्जा मिला। वन डे क्रिकेट शुरू होने और १९८३ में भारत के इसमें विश्व चैंपियन बनने के साथ खेल को जो अभूतपूर्व लोकप्रियता मिली, उसने इसे कॉरपोरेट जगत के लिए अहम बना दिया। टीवी मीडिया के प्रसार के साथ अब यह खेल उत्पादों को लक्ष्य बाज़ार तक प्रचारित करने का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम बन चुका है। पिछले विश्व कप में भारत के पहले दौर में बाहर हो जाने से क्रिकेट की अर्थव्यवस्था को लेकर कई शंकाएं पैदा हुईं। लेकिन जानकार तब भी मानते थे कि इस खेल के साथ पैसे का इतना बड़ा दांव लगा हुआ है, कि इसकी हैसियत आसानी से नहीं घटेगी।
अब ट्वेन्टी-ट्वेन्टी विश्व कप में भारत के चैंपियन होने के साथ ही न सिर्फ इस खेल को ले तब पैदा हुई आशंकाएं दूर हो गई हैं, बल्कि क्रिकेट को अभूतपूर्व लोकप्रियता भी मिल गई है। अखबारी रिपोर्टों के मुताबिक इस विश्व कप में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए ग्रुप मैच को करीब १५ टीआरपी मिली, जो एक रिकॉर्ड है। जाहिर है, फाइनल मैच को इससे काफी ज्यादा दर्शक मिले होंगे। फाइनल के लिए प्रसारक चैलन ने प्रति सेकंड के विज्ञापन स्लॉट को साढ़े सात लाख से दस लाख रुपए तक में बेचा और यह भी अभूतपूर्व है। फाइनल के पहले भारत के खेले छह मैचों से इस चैनल को ३५ करोड़ रुपए की कमाई हुई, जबकि बिना भारत वाले मैचों से उनसे १२ से १५ करोड़ रुपए तक कमाए। टेस्ट या वन डे में जिस मैच में भारत न हो उसमें दर्शकों की कम ही दिलचस्पी होती है। लेकिन ट्वेन्टी-ट्वेन्टी में इन मैचों को भी काफी दर्शक मिले।
लेकिन ट्वेन्टी ट्वेन्टी विश्व कप टूर्नामेंट ने यह भी याद दिलाया है कि क्रिकेट एक विश्व खेल नहीं है। यह लगातार दक्षिण एशिया की परिघटना बनता जा रहा है और भारतीय बाजार पर निर्भर होता जा रहा है। (डेमोक्रेटिक डिस्कोर्स में दिए द इकॉनोमिस्ट का लेख २०:२० ही अब क्रिकेट का भविष्य देखें) दक्षिण अफ्रीका गए भारतीय संवाददाताओं ने बताया है कि कैसे वहां स्टेडियमों के बाहर इस विश्व कप का कोई माहौल नहीं था। बल्कि वहां के लोग २०१० में दक्षिण अफ्रीका में होने वाले विश्व कप और अभी चल रहे रग्बी विश्व कप की चर्चाओं में ज्यादा दिलचस्पी लेते रहे। ऐसी रिपोर्ट्स ऑस्ट्रेलिया से भी है। द हिंदुस्तान टाइम्स के रिपोर्टर ने लिखा कि अब चाहे क्रिकेट मैच कहीं हो, भारतीय टीम के लिए घरेलू माहौल ही होता है (इंग्लैंड और दक्षिण अफ्रीका में तो यह बात बिल्कुल सही है।). इसलिए कि हर जगह स्टेडियम के भीतर ज्यादातर दर्शक भारतीय या भारतीय मूल के होते हैं, वे तिरंगा लहराते हैं और भारतीय टीम के लिए हर्षध्वनि करते हैं। क्रिकेट के भूमंडलीकरण के नाम पर जिन देशों में क्रिकेट को फैलाया जा रहा है, वहां प्रबंधक, खिलाड़ी और दर्शक भी ज्यादातर दक्षिण एशियाई मूल के होते हैं।
इन तथ्यों की रोशनी में हम शायद भारतीय टीम की ताजा सफलता को ज्यादा सही परिप्रक्ष्य में समझ सकते हैं। यह सफलता पर पूरे भारतीय राष्ट्र को गर्व है। यह सफलता भारत के नए आत्मविश्वास और नई संघर्ष भावना की प्रतीक है। और इसीलिए अब शायद यह सही वक्त है, जब हम क्रिकेट से आगे उन खेलों में कामयाबी के भी सपने देखना शुरू करें जो वास्तव में विश्व खेल हैं।  

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